शिवा ने मां का बन्धन खोला

जनवरी 7, 2009 को 8:28 अपराह्न | आत्मकथा, काकोरी के शहीद, काकोरी षड़यंत्र, रंग दे बसंती चोला, वन्दे मातरम, सरफ़रोशी की तमन्ना में प्रकाशित किया गया | 3 टिप्पणियां
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अब तक आपने पढ़ा … 

जेल के अन्दर अभियुक्तों ने प्रायः सभी त्योहार बड़े उत्साह से मनाए । सरस्वती पूजा, बसन्त पंचमी और होली अभियुक्तों की खास तौर से बहुत अच्छी हुई । बसन्त के दिन जब सबों ने मिल कर यह गाना गाया तो सबों के हृदय में देशभक्ति की हिलोरें उठने लगी :
मेरा रंग दे बसंती चोला
इस रंग में रंग के शिवा ने मां का बन्धन खोला ।
यही रंग हल्दीघाटी में खुल कर के था खेला ।
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह मेला ।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।
  अब आगे … . ..

इनके त्यौहारों में कितनी अपूर्वता थी । बसन्त और होली का मूल्य और महत्व ये ही अनुभव कर सके होंगे । आनन्द का दिवस था । नौकरशाही के हाथों हमारा भविष्य अन्धकार में तो निश्चित ही है । हमारी रची हुई सभी कविताओं का जिक्र करना यहां पर असम्भव प्रतीत होता है, कारण वे सभी रचनायें जेल के बाहर तक न पहुंच सकेंगी । हां कुछ गाने जो अभियुक्त कचहरी जाते समय गाया करते थें, वह इस प्रकार है :

एक :
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुये कातिल में हैं।
रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में,
लज्ज़ितें सहरान वर्दी दूरिये मंजिल में हैं।
वक़्त आने दे बता देगें तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में हैं।
आज फिर मकतल में क़ातिल कह रहा है बारबार,
कया तमन्नायें षहादत भी किसी के दिल में हैं।
ऎ शहीदे मुल्को-मिल्लत ! मैं तेरे उपर निसार,
अब तेरी हिम्मत की चरचा गै़र की महफिल में है ।
अब न अगले बलबले है और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत, अब दिले बिस्मिल में हैं ।

2

दो :
भारत न रह सकेगा,     हरगिज़ गुलामखाना ।
आजाद होगा होगा,       आता है वह ज़माना।।
खूं खौलने लगा है,      हिन्दोस्तानियों का ।
कर देंगे जा़लिमों का,    हम बन्द जुल्म ढाना ।।
कौमी तिरंगें झंडे,        पर जां निसार अपनी ।
हिन्दू, मसीह, मुस्लिम,  गाते है यह तराना ।।
अब भेड़ और बकरी,    बन कर न हम रहेंगे ।
इस पस्तहिम्मती का,   न होगा कहीं ठिकाना ।।
परवाह अब किसे है,    जेल ओ दमन की प्यारो ।
एक खेल हो रहा है,    फांसी पे झूल जाना ।।
भारत वतन हमारा,     भारत के हम हैं बच्चे ।
वतन के वास्ते हैं,      मंजूर सर कटाना ।।

2

अन्य गीतों का हम यहां पर स्थानाभाव के कारण वर्णन करने में असमर्थ है,कुछ जिक्र किये देते हैं.. ..

1.  अपने ही हाथों से सर कटाना है हमें ।
     मादरे हिन्द को सर भेंट चढ़ाना है हमें ।।

2.  एक दिन होगा कि हम फांसी चढ़ायें जायेंगे ।
     नौ जवानों देख लो हम फिर मिलने आयेंगे ।।
3. 
हमने इस राज्य में आराम न कोई देखा ।
     देखा जो ग़रीबों को तो रोते देखा ।। 

आखिर में मुकद्दमों की सुनवाई खत्म हुई । 6 अप्रैल सन् 1927 को सेशन जज मामले का फैसला सुनाने को थे । उस दिन पुलिस का पहरा सब दिनों से कहीं अधिक कड़ा था । बहुत थोड़े व्यक्ति भीतर पहुंच पाये थे । करीब 11 बजे अभियुक्त अपनी मस्तानी अदा से ‘ सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,’  गाते हुए मोटर लारियों से उतरे । अदालत में घुसते ही वन्देमातरम् के नाद से उन्होंने भवन को गुंजा दिया । फैसला सुनने के लिए सब शांति भाव से खड़े हो गये । मस्तकों पर रोली का तिलक लगा था । अदालत के चारों ओर पुलिस और सवार गश्त लगा रहे थे । जनता के बाहर खड़े होने से ही जज महोदय का दिल धड़कने लगता था । उस दिन पं0 जगत नारायण जी कचहरी नहीं आये । अन्य सरकारी वकील भी मुंह छिपाकर चल दिये । अभियुक्तों के मुख पर किसी प्रकार का विकार न था, प्रत्युत उनमें मुस्कराहट थी । फ़ैसला बहुत लम्बा था । फ़ैसले में ब्रिटिश सरकार का तख्त उलट देने के व्यापक षड़यन्त्र का जिक्र करने के बाद प्रत्येक अभियुक्त पर लगाये गये भिन्न-भिन्न आरोपों पर विचार  किया गया था और तदनुसार सबकों सजायें सुनाई जाने लगीं । अभियुक्तों के सम्बन्ध में जज महोदय ने स्पष्टतया कहा कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस कार्य में प्रवृत नहीं हुए । पर किसी अभियुक्त ने न तो पश्चाताप ही किया और न इस बात का बचन दिया कि भविष्य में इस प्रकार के आन्दोलनों में भाग न लेंगे । सेशन जज की यह इच्छा थी कि यदि अभियुक्त ऐसी कुछ बातें कह दें, तो उनके साथ रियायत की जा सकती है । किन्तु अभियुक्तों के लिये ऐसा करना अपने ध्येय से डिग जाना था । फिर क्या था, सजायें सुनाई जाने लगी । अभियुक्तों पर 121 अ, 120 ब और 396 धारायें लगाई गई थीं । इनके अनुसार निम्नलिखित सज़ायें उन्हें मिली … जारी है

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