उन्हीं के साथ विश्वासघात कर के निकल भागूँ ?

जून 25, 2009 को 12:00 पूर्वाह्न | आत्मकथा, इतिहास में हमारे प्रयत्न, खण्ड-4 में प्रकाशित किया गया | 3 टिप्पणियां
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पिछली कड़ी में..निश्चित किया कि अब भाग चलूं । पाखाने के बहाने से बाहर निकाला गया । एक सिपाली कोतवाली से बाहर दूसरे स्थान में शौच के निमित्त लिवा गया । दूसरे सिपाहियों ने उससे बहुत कुछ कहा कि रस्सी डाल लो । उस ने कहा मुझे विश्वास है यह भागेंगे नहीं । अब आगे..

पाखाना नितान्त निर्जन स्थान में था । मुझे पाखाने में भेज कर वह सिपाही खड़े होकर सामने कुश्ती देखने लगा । मैंने दीवार पर पैर रखा और बढ़ कर देखा कि सिपाही महोदय कुश्ती देखने में मस्त हैं । हाथ बढ़ाते ही दीवार के उपर और एक क्षण में बाहर हो जाता, फिर मुझे कौन पाता ? किन्तु तुरन्त विचार आया कि जिस सिपाही ने विश्वास करके तुम्हें इतनी स्वतन्त्रता दी, उसके साथ विश्वासघात करके भाग कर उस को जेल में डालोगे ? क्या यह अच्छा होगा ?

उस के बाल बच्चे क्या कहेंगे ? इस भाव ने हृदय पर एक ठोकर लगाई । एक ठंडी सांस भरी, दीवार से उतर कर बाहर आया और सिपाही महोदय को साथ ले कर कोतवाली की हवालात में आकर बन्द हो गया । लखनउ जेल में काकोरी के अभियुक्तेां को बड़ी भारी आजादी थी ।

राय साहब पं0 चम्पालाल जेलर की कृपा से कभी यह भी न समझ सके कि हम लोग जेल में हैं या किसी रिश्तेदार के यहां मेहमानी कर रहे हैं । जैसे मातापिता से छोटे-छोटे लड़के बातचीत पर बिगड़ जाते हैं, यही हमारा हाल था ।

हम लोग जेल वालों से बात-बात में ऐंठ जाते । पंo चम्पालाल जी का ऐसा हृदय था कि वे हम लोगों से अपनी सन्तान से अधिक प्रेम करते थे, हममें से किसी को जरा सा कष्ट होता था, तो उन्हें बड़ा दुख होता था । हमारे जरा से कष्ट को भी वह स्वयं न देख सकते थे । और हम लोग की क्यों उन के जेल में किसी कैदी, सिपाही जमादार या मुँशी किसी को भी कोई कष्ट नहीं !

सब बड़े प्रसन्न रहते है । इसके अतिरिक्त मेरी दिनचर्या तथा नियमों का पालन देख कर पहरे के सिपाही अपने गुरू से भी अधिक मेरा सम्मान करते थे । मैं यथानियम जाड़ा गर्मी तथा बरसात प्रातःकाल तीन बजे उठ कर सन्ध्यादि से निवृत हो नित्य हवन भी करता था ।

प्रत्येक पहरे का सिपाही देवता के समान मेरा पूजन करता था । यदि किसी के बाल बच्चे को कष्ट होता था, तो वह हवन की विभूति ले जाता था, और कोई जंत्र मांगता था । उनके विश्वास के कारण उन्हें आराम भी होता था, तथा उन की और भी श्रद्धा बढ़ जाती थी । परिणाम स्वरूप जेल के प्रत्येक विभाग तथा स्थान का हाल मुझे मालूम रहता ।

मैंने जेल से निकल जाने का पूरा प्रबन्ध कर लिया । जिस समय चाहता चुपचाप निकल जाता । एक रात्रि को तैयार हो कर उठ खड़ा हुआ । बैरक के नम्बरदार तो मेरे सहारे पहरा देते थे । जब जी में आता सोते जब इच्छा होती बैठ जाते, क्योंकि वे जानते थे कि यदि सिपाही या जमादार सुपरिण्टेन्डेण्ट जेल के सामने पेश करना चाहेंगे तो मैं बचा लूंगा । सिपाही तो कोई चिन्ता ही न करते थे ।

चारो ओर शान्ति थी । केवल इतना प्रयत्न करना था कि लोहे की कटी हुई सलाखों को उठा कर बाहर हो जाउं । चार महीने पहले से लोहे की सलाखें काट ली थीं । काटकर उन्हें ऐसे ढंग से जमा दी थीं कि सलाखें धोई गईं, रंगत लगवाई गई, तीसरे दिन झाड़ी जाती, आठवें दिन हथोड़े से ठोंकी जाती और जेल के अधिकारी नित्य प्रति सायंकाल घूम कर सब ओर दृष्टि डाल जाते थे, पर किसी को कोई पता न चला ।

जैसे ही मैं जेल से भागने का विचार करके के उठा था, ध्यान आया कि जिन पं० चम्पालाल की कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की जेल में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई, उन के बुढ़ापे में जब कि थोड़ा सा समय ही उन की पेंशन के लिये बाकी है, क्या उन्हीं के साथ विश्वासघात करके निकल भांगू ? सोचा जीवन भर किसी के साथ विश्वासघात न किया, तो अब भी विश्वासघात न करूंगा ।

उस समय मुझे यह भलीभांति मालूम हो चुका था कि मुझे फांसी की सजा होगी, पर उपरोक्त बात सोच कर भागना स्थगित ही कर दिया । उपरोक्त सब बातें चाहे प्रलाप ही क्यों न मालूम हो किन्तु सब अक्षरशः सत्य हैं, इन सबकें प्रमाण विद्यमान है

मैं इस समय इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि यदि हम लोगों ने प्राणपण से जनता को शिक्षित बनाने में पूर्ण प्रयत्न किया होता, तो  हमारा  उद्योग  क्रान्तिकारी  आन्दोलन  से  कहीं  अधिक  लाभदायक होता, जिसका  परिणाम  स्थायी  होता । अति उत्तम होगा कि भारत की भावी सन्तान तथा नवयुवक वृन्द क्रान्तिकारी संगठन करने की अपेक्षा जनता की प्रवृत्ति को देश सेवा की ओर लगाने का प्रयत्न करें और श्रमजीवियों तथा कृ्षकों का संगठन कर के उन को जमींदारों तथा रईसों के अत्याचारों से बचावें ।

 

अच्छा हुआ जो मैं गिरफतार हो गया और भागा नही

जून 4, 2009 को 1:02 पूर्वाह्न | आत्मकथा, खण्ड-4, सरफ़रोशी की तमन्ना में प्रकाशित किया गया | 3 टिप्पणियां
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अब विचारने की बात यह कि भारतवर्षमें क्रान्तिकारी आन्दोलन के समर्थक कौन से साधन मौजूद है ?

 गत पृष्ठों में मैंने अपने अनुभवों का उल्लेख करके दिखला दिया है कि समिति के सदस्यों को उदर-पूर्ति तक के लिये कितना कष्ट उठाना पड़ा । प्राण-पण से चेष्टा करने पर भी असहयोग आन्दोलन के पश्चात कुछ थोड़े से ही गिने चुने युवक सँयुक्त प्रान्त में ऐसे मिल सके, जो क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करके सहायता लेने को उद्यत हुये । इन गिने चुने व्यक्तियों में भी हार्दिक सहानुभूति रखने वाले, अपने जान पर खेल जाने वाले कितने थे उस का कथन ही क्या है ?

कैसी बड़ी-बड़ी आशायें बंधा कर इन व्यक्तियों को क्रान्तिकारी समिति का सदस्य बनाया गया था, और इस अवस्था में, जब कि असहयोगियों ने सरकार की ओर से घृणा उत्पन्न कराने में कोई कसर न छोड़ी थी, खुले रूप में राज्यद्रोही बातों का पूर्ण प्रचार किया गया था । इस पर भी बोलशेविक सहायता की आशायें बंधा-बंधा कर तथा क्रान्तिकारियों के उंचे-उंचे आदर्शों तथा बलिदानों का उदाहरण दे देकर प्रोत्साहन किया जाता था ।

नवयुवकों के हृदय में क्रान्तिकारियों के प्रति बड़ा प्रेम तथा श्रद्धा होती है । उनकी अस्त्र शस्त्र रखने की स्वाभाविक इच्छा तथा रिवाल्वर या पिस्तौल से प्राकृतिक प्रेम उन्हें क्रान्तिकारी दल से सहानुभूति उत्पन्न करा देता है । मैंने अपने क्रान्तिकारी जीवन में एक भी युवक ऐसा न देखा जो एक रिवाल्वर या पिस्तौल पास रखने की इच्छा न रखता हो । जिस समय उन्हें रिवाल्वर के दर्शन होते हैं,वे समझते हैं कि इष्टदेव के दर्शन प्राप्त हुये आधा जीवन सफल हो गया । उसी समय वे समझते हैं कि क्रान्तिकारी दल के पास इस प्रकार के सहस्त्रों अस्त्र होंगे, तभी तो यह इतनी  बड़ी सरकार से युद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं । वह सोचते हैं कि धन की भी कोई कमी न होगी ।

अब क्या, अब तो समिति के व्यय से दॆश भ्रमण का अवसर भी प्राप्त होगा, बड़े-बड़े त्यागी महात्माओं के दर्शन होंगे सरकारी गुप्तचर विभाग का भी हाल मालूम हो सकेगा, सरकार द्वारा जब्त किताबें कुछ तो पहले ही पढ़ा दी जाती है, रही सही की आशा रहती है कि बड़ा उच्च साहित्य भी देखने को मिलेगा, जो यों कभी प्राप्त नहीं हो सकता । साथ ही साथ ख्याल होता है कि क्रान्तिकारियों ने दॆश के राजा महाराजाओं को तो अपने पक्ष में कर ही लिया होगा । अब क्या थोड़े दिन की ही कसर है फिर तो लौट दिया सरकार का राज्य ! बम बनाना सीख ही जायेंगे । अमर बूटी प्राप्त हो जावेगी, इत्यादि । परन्तु जैसे ही एक युवक क्रान्तिकारी दल का सदस्य बन कर हार्दिक प्रेम से समिति के कार्यों में योग देता है, थोड़े दिनों में ही उसे विशेष सदस्य होने के अधिकार प्राप्त होते है, वह ऐक्टिव मेम्बर बनता है, उसे संस्था का कुछ असली भेद मालूम होता है,तब समझ में आता है कि कैसे भीषण कार्य में उसने हस्तक्षेप किया है । फिर तो वही द्शा हो जाती है, जो नकटा-पथ के सदस्यों की थी ।

जब चारों ओर से असफलता तथा अविश्वास की घटायें दिखाई देती है, तब यही विचार होता है कि ऐसे दुर्गम पथ में ये परिणाम तो होते ही हैं । दूसरे दॆश के क्रान्तिकारियों के मार्ग में भी ऐसी ही बाधायें उपस्थित हुई होंगी । वीर वही कहलाता है, जो अपने लक्ष्य सो नहीं छोड़ता, इसी प्रकार की बातों से मन को शान्त किया जाता है । भारत के जन साधारण की तो कोई बात ही नही , अधिकांश शिक्षित समुदाय भी यह नहीं जानता कि क्रान्तिकारी दल क्या पदार्थ है । फिर उन से सहानुभूति कौन रक्खे ? अतएव बिना  दॆशवासियों  की  सहानुभूति  के  अथवा  जनता  की  आवाज  के  साथ  नहीं  होने  से सरकार  भी किसी बात की कुछ चिन्ता नहीं करती । दो चार पढ़े लिखे एक दो अंग्रेजी अखबार में दबे हुये शब्दों में यदि दो एक लेख लिख दे, तो वे अरण्य रोदन के समान कुछ भी प्रभाव नहीं रखते ! उन की ध्वनि व्यर्थ में ही आकाश में विलीन हो जाती है ।

तमाम बातों को देख कर अब तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि अच्छा हुआ जो मैं गिरफतार हो गया और भागा नही । भागने की मुझे सुविधायें थी । गिरफतारी से पहले ही मुझे अपने गिरफतारी का पूरा पता चल गया था । गिरफतारी के पूर्व भी यदि इच्छा करता तो पुलिस वालों को मेरी हवा भी न मिलती, किन्तु मुझे अपने शक्ति की परीक्षा करनी थी । गिरफतारी के बाद सड़क पर आध घण्टे तक बिना किसी बन्धन के घूमता रहा । पुलिस वाले शान्ति पूर्वक बैठे हुये थे । जब पुलिस कोतवाली में पहुंचा, दो पहर के समय पुलिस कोतवाली ने दफ़्तर में बिना किसी बन्धन के खुला हुआ बैठा था । केवल एक सिपाही निगरानी के लिये पास बैठा हुआ था, जो रात भर का जगा था । सब पुलिस अफसर भी रात भर के जगे थे, क्योंकि गिरफ़्तारियों में लगे रहे थे । सब आराम करने चले गये थे । निगरानी वाला सिपाही भी घोर निद्रा में सो गया । दफतर में केवल एक मुन्शी लिखा पढ़ी कर रहे थे ।

वह श्रीयुत रोशनसिंह अभियुक्त के फूफीजात भाई थे । यदि मैं चाहता तो धीरे से उठ कर चल देता । पर मैं ने विचारा कि मुन्शी जी महाशय बुरे फसेंगे । मैंने मुन्शी जी को बुला कर कहा कि यदि भावी आपत्ति के लिये तैयार हो तो मैं जाउं । वे  मुझे  पहले  से  जानते  थे, पैरों पड़ गये कि गिरफ़्तार हो जाउंगा, बाल-बच्चे भूखों मर जावेंगे । मुझे दया आ गई । एक घण्टा बाद श्री अशफाकउल्ला खां के मकान की तलाशी ले कर पुलिस वाले लौटे । श्री अशफाकउल्ला खां  भाई  के  कारतूसी  बन्दूक  और कारतूसों  से  भरी  हुई  पेटी लाकर उन्हीं मुन्शीजी के पास रख दी गई, और मैं पास ही कुर्सी पर खुला हुआ बैठा था । केवल एक सिपाही खाली हाथ पास में खड़ा था । इच्छा हुई कि बन्दूक उठा कर कारतूसों की पेटी गले में डाल लूं फिर कौन सामने आयेगा । पर फिर सोचा कि मुन्शी जी पर आपत्ति आवेगी, विश्वासघात करना ठीक नहीं । उसी समय खुफिया पुलिस के डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट सामने छत पर आये 

उन्होंने देखा कि मेरे एक ओर कारतूस तथा बन्दूक पड़ी है, उधर दूसरी ओर श्रीयुत प्रेमकृष्ण का माउजर पिस्तौल तथा कारतूस रखे है, क्योंकि यह सब चीजें मुन्शी जी के पास आ कर जमा होती थी । मैं बिना किसी बन्धन के बीच में खुला हुआ बैठा हूं । डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट को तुरन्त सन्देह हुआ,उन्होंने तत्काल ही  बन्दूक  पिस्तौल वहां से हटवा कर मालखाने में बन्द करा दिये । सायंकाल को पुलिस की हवालात में बन्द किया गया । निश्चित किया कि अब भाग चलूं । पाखाने के बहाने से बाहर निकाला गया । एक सिपाली कोतवाली से बाहर दूसरे स्थान में शौच के निमित्त लिवा गया । दूसरे सिपाहियों ने उससे बहुत कुछ कहा कि रस्सी डाल लो । उस ने कहा मुझे विश्वास है यह भागेंगे नहीं ।  

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