माशूक के थोड़े से भी एहसान बहुत है
फ़रवरी 18, 2009 को 8:57 अपराह्न | आत्म-चरित, खण्ड-4, चँद शेर में प्रकाशित किया गया | 7 टिप्पणियांटैग: अदालत, काकोरी डकैती, क्रान्तिकारी समिति, गवाही, चतुर्थ खण्ड, जेल, परमात्मा, पराधीन देश, पुलिस के दरोगा, ब्रिटिश सरकार, मुकद्दमा, लेखन शैली का नियम, षड़्यन्त्र, हिन्दू मुस्लिम झगड़े
तलवार ख़ूँ में रंग लो, अरमान रह न जाये ।
बिस्मिल के सर पे कोई अहसान रह न जाये ।।
अब आगे पृष्ठ 131 से जारी है…. समिति के सदस्यों ने इस प्रकार का व्यवहार किया । बाहर जो साधारण जीवन के सहयोगी थे, उन्होंने भी अद्धभुत रूप धारण किया । एक ठाकुर साहब के पास काकोरी डकैती का नोट मिल गया था । वह कहीं से शहर में पा गये थे । जब गिरफ़्तारी हुई, मजिस्टेट के यहाँ से जमानत नामंजूर हुई जज साहब ने चार हजार की जमानत मांगी । कोई जमानती न मिलता था । आपके वृद्ध भाई मेरे पास आये । पैरों पर सिर रख कर रोने लगे ।
मैंने जमानत कराने का प्रयत्न किया । मेरे माता-पिता कचहरी जा कर खुले रूप से पैरवी करने को मना करते रहे कि पुलिस खिलाफ है, रिपोर्ट हो जायेगी, पर मैंने एक न सुनी । कचहरी जा कर, कोशिश करके जमानत दाखिल कराई । जेल से उन्हें स्वयं जा कर छुड़वा लाया । पर जब मैंने उक्त महाशय का नाम उक्त घटना की गवाही देने के लिये सूचित किया, तब पुलिस ने उन्हें धमकाया और उन्होंने पुलिस को तीन बार लिख कर दिया कि वह रामप्रसाद को जानते भी नहीं ।
हिन्दू मुसलिम झगड़े में जिनके घरों की रक्षा की थी, जिनके बाल बच्चे मेरे सहारे मुहल्ले में निर्भयता से निवास करते रहे, उन्होंने ही मेरे खिलाफ झूठा गवाहियां बनवाकर भेजी । कुछ मित्रों के भरोसे पर उन का नाम गवाही में दिया कि जरूर गवाही देंगे, संसार लौट जावे पर वे नहीं डिग सकते । किन्तु वचन दे चुकने पर भी जब पुलिस का दबाव पड़ा, वे भी गवाही देने से इन्कार कर गये ।
जिनको अपना हृदय, सहोदर तथा मित्र समझ कर हर आवश्यकता होता यथा शक्ति उनको पूर्ण करने की प्राणपण से चेष्टा करता था, उनसे इतना भी न हुआ कि कभी जेल पर आकर दर्शन दे जाते, फांसी की कोठरी में ही आकर सन्तोषदायक दो बातें कर जातें । एक दो सज्जनों ने इतनी कृपा तथा साहस किया कि दस मिनट के लिये अदालत में दूर खड़े होकर दर्शन दे गये ।
यह सब इसलिये कि पुलिस का आतंक छाया हुआ था कि कहीं गिरफ़्तार न कर लिये जावें । इस पर भी जिसने जो कुछ किया और दिया, मैं उसी को अपना सौभाग्य समझता हूं, और उनका आभारी हूं –
वह फूल चढ़ाते है तुरबत भी दबी जाती है ।
माशूक के थोड़े से भी एहसान बहुत है ।।
परमात्मा से यही प्रार्थना है कि सब प्रसन्न तथा सुखी रहें । मैंने तो सब बातों को जानकर ही इस मार्ग में पैर रखा था । मुकद्दमें के पहले संसार का कोई अनुभव ही न था । न कभी जेल देखा, न किसी अदालत का कोई तर्जुबा ही न था । जेल में जाकर मालूम हुआ कि किसी नई दुनिया में पहुंच गया । मुकद्दमें के पहले मैं यह भी न जानता था, कि कोई लेखन-कल-विज्ञान भी है । इसका भी कोई दक्ष भी होता है, जो लेखन शैली को देखकर लेखकों का निर्णय कर सकता है ।
यह भी नहीं पता था कि लेख किस प्रकार मिलाये जाते है, एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के लेख में क्या भेद होता है, क्यों भेद होता है, लेखन कला का दक्ष हस्ताक्षर को प्रमाणित कर सकता है, तथा लेखक के वास्तविक लेख में तथा बनावटी लेख में भेद कर सकता है । इस प्रकार का कोई भी अनुभव तथा ज्ञान न था । अनुभव तथा ज्ञान न रखते हुये भी एक प्रान्त की क्रान्तिकारी समिति का सम्पूर्ण भार लेकर उसका संचालन कर रहा था ।
बात यह है कि क्रान्तिकारी कार्य की शिक्षा देने के लिये कोई पाठशाला तो है ही नहीं । यही हो सकता था कि पुराने अनुभवी क्रान्तिकारियों से कुछ सीखा जावे । न जाने कितने व्यक्ति बंगाल तथा पंजाब षड़यन्त्रों में गिरफ़्तार हुए, पर किसी ने भी यह उद्योग न किया कि एक इस प्रकार की पुस्तक लिखी जावे जिससे नवागन्तुकों को कुछ अनुभव की बातें मालूम होती । |
लोगों को इस बात की बड़ी उत्कण्ठा होगी कि क्या यह पुलिस का भाग्य ही था, जो सब बना बनाया मामला हाथ आ गया ! क्या पुलिस वाले परोक्ष ज्ञानी होते है ? कैसे गुप्त बातों का पता चला लेते है ?
इनकी सफलता पर यह कहना पड़ता है कि यह इस पराधीन देश का दुर्भाग्य ! ब्रिटिश सरकार का सौभाग्य !! बंगाल पुलिस के सम्बन्ध में तो अधिक कहा नहीं जा सकता, क्योंकि मेरा कुछ विशेषानुभव नहीं । इस प्रान्त की खुफिया पुलिस वाले तो महान भांदू होते हैं । जिन्हें साधारण ज्ञान भी नहीं होता । साधारण पुलिस से खुफिया में आते हैं साधारण पुलिस की दारोगाई करते हैं, मजे में लम्बी-लम्बी घूस खा कर बड़े-बड़े पेट बढ़ा आराम करते हैं ।
उनकी बला से कि कोई तकलीफ उठावें । यदि कोई एक दो चालाक हुए भी तो थोड़े दिन बड़े ओहदे की फिराक में काम दिखाया, दौड़ धूप की, कुछ पदवृद्धि हो गई और सब काम बन्द । इस प्रान्त में कोई बाकायदा पुलिस का गुप्तचर विभाग नहीं, जिस को नियमित रूप से शिक्षा दी जाती हो । फिर काम करते-करते अनुभव हो ही जाता है ।
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