कार्यकर्ताओं की दुर्दशा, अशान्ति युवक दल
फ़रवरी 6, 2009 को 4:01 अपराह्न | आत्म-चरित, आत्मकथा, खण्ड-4, सरफ़रोशी की तमन्ना में प्रकाशित किया गया | 5 टिप्पणियांटैग: अनुकूल परिस्थितियों, अशान्ति युवक दल, कार्यकर्ता, किंकर्तव्य विमूढ़, चतुर्थ खण्ड, डेढ़ चावल की खिचड़ी, धन का प्रबन्ध, नाकों चने चबवा दिये, नेतागिरी, पंडित जी अब क्या करें ?, बंगाल आर्डिनेन्स, भूखों मर रहे हैं
इस वृहत संगठन में भी … इस समय समिति के सदस्यों की बड़ी दुर्दशा थी । चने मिलना भी कठिन था । सब पर कुछ न कुछ कर्ज हो गया था । किसी पास साबित कपड़े तक न थें कुछ विद्यार्थी बन कर धर्मक्षेत्रों ( लंगर ) तक में भोजन कर आते थे । चार पाचं ने अपने-अपने केन्द्र त्याग दिये । पांच सौ से अधिक रूपये मैं कर्ज लेकर व्यय कर चुका था । यह दुर्दशा देख मुझे बड़ा कष्ट होने लगा । मुझसे भी भर पेट भोजन न किया जाता था । सहायता के लिये कुछ सहानुभूति रखने वालों का द्वार खटखटाया, किन्तु कोरा उत्तर मिला । किंकर्तव्य विमूढ़ कुछ समझ में न आता था । मेरे पास कोई उत्तर न होता जब कोई कोई कोमल हृदय नवयुवक मेरे चारों ओर बैठ कर कहा करते …
पंडित जी अब क्या करें ? मैं उनके सूखे सूखे मुख देख बहुधा रो पड़ता कि स्वदेश सेवा का व्रत लेने के कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही है । एक-एक कुर्ता धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबित होती । लंगोट पहिन कर दिन व्यतीत करते थे । अंगोछे पहन कर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो – दो पैसे के सत्तू खाते थे । मैं पन्द्रह वर्ष से एक समय दूध पीता था । इन लोगों की यह दशा देख कर मुझे दूध पीने का साहस न होता था । मैं भी सब के साथ बैठ कर सत्तू खा लेता था ।
मैं उनके सूखे सूखे मुख देख बहुधा रो पड़ता कि स्वदेश सेवा का व्रत लेने के कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही है । एक-एक कुर्ता धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबित होती । लंगोट पहिन कर दिन व्यतीत करते थे । अंगोछे पहन कर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो दो पैसे के सत्तू खाते थे
मैंने विचारा कि इतने नवयुवकों के जीवन को नष्ट कर के उन्हें कहां भेजा जावे ? जब समिति का सदस्य बनाया था, तो लोगों ने बड़ी-बड़ी आशायें बंधाई थीं । कइयों का पढ़ना लिखना छुड़ा कर काम दिया था । पहले से मुझे यह हालत मालूम होती तो मैं कदापि इस प्रकार की समिति में योग न देता, बुरा फंसा । क्या करूं कुछ समझ ही में न आता था अन्त में धैर्य धारण कर दृढ़ता पूर्वक कार्य करने का निश्चय किया ।
इसी बीच में बंगाल आर्डिनेन्स निकला और गिरफतारियां हुईं । इनका गिरफ़्तारियों ने यहां तक असर डाला कि कार्यकर्ताओं में निष्क्रियता के भाव आ गये । क्या प्रबन्ध किया जावे कुछ निर्णय नहीं कर सके । मैंने प्रयत्न किया कि किसी तरह एक सौ रूपया मासिक का कहीं से प्रबन्ध हो जाय । प्रत्येक केन्द्र के प्रतिनिधि से सर्वप्रकारेण प्रार्थना की थी कि समिति के सदस्यों से कुछ सहायता लें मासिक चन्दा वसूल करें ।
पर किसी ने कुछ न सुनी । व्यक्तिगत कुछ सज्जनों से प्रार्थना की कि वे अपने वेतन में से कुछ मासिक दे दिया करें । किसी ने कुछ ध्यान न दिया । सदस्य रोज मेरे द्वार पर खड़े रहते थे । पत्रों की भरमार रहती थी कि कुछ धन का प्रबन्ध कीजिये भूखों मर रहे हैं । दो एक को व्यवसाय में लगाने का भी प्रबन्ध किया ।
दो चार जिलों में काम बन्द कर दिया वहां के कार्यकर्ताओं से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि हम मासिक शुल्क नहीं दे सकते । यदि कोई दूसरा निर्वाह का मार्ग हो, और उस ही पर निर्भर रह कर कार्य कर सकते हो तो करो । हम से जिस समय हेा सकेगा देंगे किन्तु अब मासिक वेतन देने के लिये हम बाध्य नहीं । कोई बीस रूपये कर्जें के मांगता था, कोई पचास का बिल भेजता था । कईयों ने असंतुष्ट हो कर कार्य छोड़ दिया ।
मैंने भी समझ लिया ठीक ही है, पर इतना करने पर भी गुजर न हो सकी ।
अशान्ति युवक दल
कुछ महानुभावों की प्रकृति होती है कि वे अपनी कुछ शान जमाना या अपने आप को बड़ा दिखाना अपना कर्तव्य समझते है, जिससे बहुत बड़ी हानियां हो जाती हैं । सरल प्रकृति के मनुष्य ऐसे मनुष्यों में विश्वास करके उनमें आशातीत साहस, योग्यता तथा कार्य दक्षता की आशा करके उन पर श्रद्धा रखते हैं । किन्तु समय आने पर यह निराशा के रूप में परिणत हो जाती है । इस प्रकार के मनुष्यों की किन्हीं कारणोंवश यदि प्रतिष्ठा हो गई, अथवा अनुकूल परिस्थितियों के उपस्थित हो जाने से उन्होंने किसी उच्च कार्य में योग दे दिया, तब तो फिर वे अपने आपको बड़ा भारी कार्यकर्ता जाहिर करते है ।
जन साधारण भी अन्धविश्वास से उनकी बातों पर विश्वास कर लेते है । विशेषकर नवयुवक तो इस प्रकार के मनुष्यों के जाल में शीघ्र ही आ जाते है । ऐसे ही लोग नेतागिरी की धुन में अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाया करते है । इसी कारण पृथक-पृथक दलों का निर्माण होता है । इस प्रकार के मनुष्य प्रत्येक समाज तथा प्रत्येक जाति में पाये जाते हैं । इन से क्रान्तिकारी दल भी मुक्त नहीं रह सकता । नवयुवकों का चंचल स्वभाव होता है, तथा वह शान्त रह कर संगठित कार्य करना बड़ा दुष्कर समझते हैं ।
उनके हृदय में उत्साह की उमंगें उठती हैं, वे समझते हैं तो चार अस्त्र हाथ आये कि हमने गवरर्मेंण्ट को नाकों चने चबवा दिये । मैं भी जब क्रान्तिकारी दल में योग देने का विचार कर रहा था, उस समय मेरी उत्कट इच्छा थी कि यदि एक रिवाल्वर मिल जावे तो दस बीस अंग्रेजों को मार दूं । इसी प्रकार के भाव मैंने कई नवयुवकों में देखें । उनकी बड़ी प्रबल हार्दिक इच्छा होती है, कि येनप्रकारेण हथियार मिले जावे ।
किसी प्रकार एक रिवाल्वर या पिस्तौल उनके हाथ लगता तो वे उसे अपने पास रखते । मैंने उन से, पास रखने का लाभ पूछा, तो कोई सन्तोषजनक उत्तर नही । कई युवकों को मैंने इस शौक के पूरा करने में सैकड़ों रूपये बरबाद करते भी देखा है । किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन के सदस्य नहीं, कोई विशेष कार्य भी नहीं, महज शौकिया रिवाल्वर पास रखेंगे । ऐसे ही थोड़े से युवकों का एक दल एक महोदय ने भी एकत्रित किया । यह सब बड़े सच्चरित्र, स्वदेशाभिमानी और सच्चे कार्यकर्ता थे ।
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स्वदेश सेवा का व्रत लेने के कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही है। एक-एक कुर्ता धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबित होती। लंगोट पहिन कर दिन व्यतीत करते थे। अंगोछे पहन कर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो-दो पैसे के सत्तू खाते थे।
मूरख को तुम राज दियत हो, पंडित फिरत भिखारी, संतों करम की गति न्यारी (मीराबाई)
Comment by Smart Indian— फ़रवरी 6, 2009 #
@ आदरणीय अनुराग जी,
आपकी सतत दिलचस्पी आज़ादी के इन मतवालों में बनी हुई है,
इसीलिये ही मन आदर से भर उठता है ।
यदि केवल 10 पाठक, मात्र 10 पाठक ही हों,
तो भी इस कृतघ्न देश की ओर से..
मैं अपना और अमिता जी का समय और श्रम सार्थक मानूँगा ।
इस आपाधापी में आज किसे इनके बलिदानों की परवाह ही है ?
कभी कभी लगता है, कि मैं केवल आपके, सुब्रमणियन जी, नीरज रोहिल्ला सहित
कुछेक अन्य देशप्रेमियों के लिये ही लिख रहा हूँ ।
पर यह उन बलिदानियों के प्रति मेरे देय मात्र से कुछ अधिक नहीं है !
वस्तुतः यहाँ टिप्पणियों का औचित्य केवल श्रद्धासुमन स्वरूप ही होगा ।
Comment by डा. अमर कुमार— फ़रवरी 6, 2009 #
आदरणीय भाईसाहब और अमिता बहन आपका कार्य साधुवाद के योग्य है। मैं नियमित रूप से आपको पढ़ रहा हूं बल्कि तमाम भड़ासी भी दिलचस्पी से पढ़ रहे हैं मैं इस चिट्ठे की लिंक अपनेएक अन्य चिट्ठे भड़ास पर लगा रहा हूंताकि अन्य लोग भी इस महान कार्य को जान सकें और अपने शहीदों को याद कर उनके विचारों का संदर्भ लेकर बेहतर जीवन जीते हुए देश को प्रगति के रास्ते पर ले चलें।
आप सभी को दिल से नमन
Comment by डा.रूपेश श्रीवास्तव— फ़रवरी 6, 2009 #
युवाओं के चंचल स्वभाव पर सटीक राय है बिस्मिल जी की.
Comment by Abhishek— फ़रवरी 6, 2009 #
डाक्टर साहब,
हम नियमित रूप से पढ रहे हैं, बस हर बार टिप्पणी नहीं छोडते लेकिन आगे से ध्यान रखेंगे। ये श्रृंखला अनमोल है, इसे चालू रखने के लिये जितना भी धन्यवाद दें कम है।
Comment by Neeraj Rohilla— फ़रवरी 6, 2009 #