रेलवे डकैती
फ़रवरी 7, 2009 को 12:14 पूर्वाह्न | आत्म-चरित, आत्मकथा, काकोरी षड़यंत्र, खण्ड-4 में प्रकाशित किया गया | 5 टिप्पणियांटैग: अंग्रेज, अक्षरशः, आर्थिक अवस्था, गठरी, गार्ड के डब्बे, चतुर्थ खण्ड, जंजीर खींचकर, दस युवकों, नरहत्या, मेरा साहस, रेलवे डकैती, लूटना है, लोहे का संदूक, सरकारी माल, सहारनपुर
इन कठिनाइयों के बाद भी…. इस दल ने विदेश से अस्त्र प्राप्त करने का बड़ा उत्तम सूत्र प्राप्त किया था, जिससे यथा रूचि पर्याप्त अस्त्र मिल सकते थे, उन अस्त्रों के दाम भी अधिक न थे । अस्त्र भी पर्याप्त संख्या में बिल्कुल नये मिलते थे । यहां तक प्रबन्ध हो गया था कि यदि हम लोग मूल्य का उचित प्रबन्ध कर देंगे, और यथा समय मूल्य निपटा दिया करेंगे, तो हम को माल उधार भी मिल जाया करेगा और हमें जब जिस प्रकार के जितनी संख्या में अस्त्रों की आवश्यकता होगी, मिल जाया करेंगे । यही नहीं समय आने पर हम विशेष प्रकार की मशीन वाली बन्दूकें भी बनवा सकेंगे । परन्तु अड़चन थी कि इस समय समिति की आर्थिक अवस्था बड़ी खराब थी ।
इस सूत्र के हाथ लग जाने और इससे लाभ उठाने की इच्छा होने पर भी बिना रूपये के कुछ होता दिखलाई न पड़ता था । रूपये का प्रबन्ध करना नितान्त आवश्यक था । किन्तु वह हो कैसे ? दान कोई देता न था, कर्ज भी मिलता न था और कोई उपाय न देख डाका डालना तय हुआ किन्तु किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति पर डाका डालना हमें बिल्कुल भी अभीष्ट न था । सोचा, यदि लूटना है तो सरकारी माल क्यों न लूटा जाये ।
इसी उधेड़ बुन में एक दिन रेल में जा रहा था गार्ड के डब्बे के पास की गाड़ी में बैठा था । स्टे्शन मास्टर एक थैली लाया, और गार्ड के डब्बे में डाल गया । कुछ खटपट की आवाज हुई मैंने उतर कर देखा कि एक लोहे का संदूक रखा है । विचार किया कि इसी में थैली डाला होगी । अगले स्टेशन पर उसमें थैली डालते भी देखा ।
अनुमान किया कि लोहे का संदूक, गार्ड के डब्बे में जंजीर से बंधा रहता होगा, ताला पड़ा रहता होगा, आवश्यकता पड़ने पर ताला खोलकर उतार लेते होंगे । इसके थोड़े दिनों बाद लखनउ स्टेशन पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ । देखा कि एक गाड़ी में से कुली लोहे के आमदनी डालने वाले सन्दूक उतार रहे है । निरीक्षण करने से मालूम हुआ कि उसमें जंजीर ताला कुछ नहीं पड़ता, यों हीं रखे जाते है । उसी समय निश्चय किया कि इसी पर हाथ मारूंगा । उसी समय से यह धुन सवार हुई ।
उसी समय से धुन सवार हुई तुरन्त स्थान पर जा टाइम टेबुल देखकर अनुमान किया कि सहारनपुर से गाड़ी चलती है तब लखनउ तक दस हजार रूपये रोज की आमदनी तो आती होगी । सब बातें ठीक करके कार्यकर्ताओं का संग्रह किया । दस नवयुवकों को लेकर विचार किया कि किसी छोटे स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी हो, स्टेशन के तारघर पर अधिकार कर लें, और गाड़ी का भी सन्दूक उतार कर तोड़ डालें, जो कुछ मिले उसे लेकर चल दें । परन्तु इस कार्य में मनुष्यों की अधिक संख्या की आवश्यकता थी ।
इस कारण यह निश्चय किया कि गाड़ी की जंजीर खींचकर, चलती गाड़ी को खड़ा करके तब लूटा जावे । सम्भव है कि तीसरे दर्जें की जंजीर खींचने से गाड़ी न खड़ी हो, क्योंकि तीसरे दर्जें में बहुधा प्रबन्ध ठीक नहीं रहता है । इस कारण से दूसरे दर्जें की जंजीर खींचने का प्रबन्ध किया । सब लोग उसी ट्रेन में सवार थे । गाड़ी खड़ी होने पर सब उतर कर गार्ड के डब्बे के पास पहुंच गये । लोहे का सन्दूक उतार कर छेनियों से काटना चाहा, छेनियों ने काम न दिया तब कुल्हाड़ा चला । मुसाफिरों से कह दिया कि सब गाड़ी में चढ़ जाओ ।
गाड़ी का गार्ड गाड़ी में चढ़ना चाहता था, पर उसे जमीन पर लेट जाने की आज्ञा दी, ताकि बिना गार्ड के गाड़ी न जा सके । दो आदमियों को नियुक्त किया कि वे लाइन की पगडण्डी को छोड़कर घास में खड़े होकर गाड़ी से हटे हुये गोली चलाते रहें । एक सज्जन गार्ड के डब्बे से उतरे । उनके पास भी माउजर पिस्तौल था । विचारा कि ऐसा शुभ अवसर जाने कब हाथ आवे । माउजर पिस्तौल काहे को चलाने को मिलेगा ? उमंग जो आई सीधा करके दागने लगे । मैंने जो देखा तो डाँटा, क्योंकि गोली चलाने की ड्यूटी ही न थी ।
फिर तो यदि कोई रेलवे मुसाफिर कौतूहलवश बाहर को सिर निकाले तो उसके गोली जरूर लग जावें । हुआ भी ऐसा ही, जो व्यक्ति रेल से उतर कर अपनी स्त्री के पास जा रहा था, मेरा विचार है कि इन्हीं महाशय को गोली उसके लग गई, क्योंकि जिस समय यह महाशय सन्दूक नीचे डालकर गार्ड के डब्बे से उतर थे, केवल दो तीन फायर हुये थे ।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल ।
तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना !
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना ।
बलि देकर भी बली ! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे !
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध ।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
रेल के मुसाफिर ट्रेन में चढ़ चुके थे । अनुमान होता है, कि ठीक उसी समय स्त्री ने कोलाहल किया होगा और उसका पति उसके पास जा रहा था जो उक्त महाशय की उमंग का शिकार हो गया । मैंने यथाशक्ति पूर्ण प्रबन्ध किया था कि जब तक कोई बन्दूक लेकर सामना करने न आवे, या मुकाबले में गोली न चले तब तक किसी आदमी पर फायर न होने पावे ।
मैं नरहत्या करा के डकैती को भीषण रूप देना नहीं चाहता था । फिर भी मेरा कहा न मानकर अपना काम छोड़ गोली चला देने का यह परिणाम हुआ । गोली चलाने की जिनको मैंने ड्यूटी दी थी वे बड़े दक्ष तथा अनुभवी मनुष्य थे, उनसे भूल होना असम्भव है । उन लोगों को मैंने देखा कि वे अपने स्थान से पांच मिनट बाद पांच फायर करते थे यही मेरा आदेश था । सन्दूक तोड़ तीन गठरियों में थैलियां बांधी । सबसे कई बार कहा-देख लो कोई सामान रहा तो नहीं गया ? इस पर भी एक महाशय चद्दर डाल आये ।
रास्ते में थैलियों से रूपया निकालकर गठरी बांधी और उसी समय लखनउ शहर में जा पहुंचे । किसी ने पूछा भी नहीं, कौन हो, कहां से आये हो ? इस प्रकार दस आदमियों ने एक गाड़ी को रोक कर लूट लिया । उस गाड़ी में चौदह मनुष्य ऐसे थे जिनके पास बन्दूक या रायफलें थीं । दो अंग्रेज सशस्त्र फौजी जवान भी थे, पर सब शांत रहे । ड्रायवर महाशय तथा एक इंजीनियर महाशय दोनों का बुरा हाल था । वे दोनों अंग्रेज थे ।
ड्रायवर महाशय इंजन में लेट रहे । इंजीनियर महाशय पाखाने में जा छिपे । हमने यह कह दिया था कि मुसाफिरों से न बोलेंगे, सरकार का माल लूटेंगे । इस कारण से मुसाफिर भी शान्ति पूर्वक बैठे रहे । समझे तीस चालीस आदमियों ने गाड़ी को चारों ओर से घेर लिया है । केवल दस युवकों ने इतना बड़ा आतंक फैला दिया । साधारणतया इस बात पर बहुत से मनुष्य विश्वास करने में भी संकोच करेंगे कि मात्र दस नवयुवकों ने एक गाड़ी खड़ी करके लूट ली । जो भी हो बात वास्तव में यही थी ।
इन दस कार्यकर्ताओं में अधिकतर तो ऐसे जो आयु में सिर्फ लगभग बाईस वर्ष के होंगे, और जो शरीर में बड़े पुष्ट भी न थे । इस सफलता को देखकर मेरा साहस बहुत बढ़ गया । मेरा जो विचार था, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ । पुलिस वालों की वीरता का मुझे पहले ही अन्दाजा था । इस घटना से भविष्य के कार्य की बहुत बड़ी आशा बंध गई । नवयुवकों का भी उत्साह बढ़ गया । जितना कर्जा था निपटा दिया ।
5 टिप्पणियां »
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पढ़ रहे है और एक बार फ़िर से जान रहे है ।
Comment by mamta— फ़रवरी 7, 2009 #
जबरदस्त!!!!!!!!! इस ब्लॉग की हर पोस्ट के लिए मेरे पास यही शब्द है.. बिस्मिल्ल साहब को पूरा पढ़ुंगा.. एक साँस में.. ये शानदार प्रयास है.. वाकई में..
Comment by कुश— फ़रवरी 7, 2009 #
bahut hi sundar aur saral lekhan. padhai chalu aahe.
Comment by PN Subramanian— फ़रवरी 7, 2009 #
bahut achchi post..thanx
Comment by pallavi trivedi— फ़रवरी 7, 2009 #
गज़ब की पोस्ट. अफ़सोस कि इस दल में ७-८ लोग भी बिस्मिल जी की बराबरी के न थे. यदि ऐसा होता तो शौकिया मोउज़र चलाने वाले के हाथ हुई ह्त्या के पाप से भी बचते और यह काम भी शायद बेहतरी से हो पाता. परन्तु विधि के लिखे पर हम सिर्फ़ कयास लगा सकते हैं उसको भला कौन टाल सकता है?
Comment by Smart Indian— फ़रवरी 8, 2009 #